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DWAPAR YUG KI UTAPATI KAISE HUI

द्वापर युग की उत्पत्ति

द्वापर युग हिंदू धर्म के चार युगों में से एक है, जिसे सत्य युग, त्रेतायुग, द्वापर युग और कलियुग के रूप में वर्णित किया गया है। इन युगों का क्रम और अवधियाँ वेदों, पुराणों और महाकाव्य साहित्य में विस्तार से वर्णित हैं। प्रत्येक युग का अपना विशेष महत्व होता है और प्रत्येक युग के दौरान भगवान के अवतार, मानव जीवन, समाज, संस्कृति और नैतिकता में परिवर्तन होते रहते हैं। द्वापर युग सत्य युग और त्रेतायुग के बीच आता है और यह कुल चार युगों में से तीसरा युग है। इस युग की शुरुआत और इसके घटनाक्रम पर विभिन्न धार्मिक ग्रंथों में विभिन्न मत हैं, लेकिन मुख्य रूप से इसे भगवान श्री कृष्ण के अवतार से जोड़ा जाता है।

द्वापर युग का समय और विशेषताएँ
द्वापर युग का समय त्रेतायुग के बाद आता है और इसके दौरान जीवन में कई महत्वपूर्ण घटनाएँ घटीं। हिन्दू धर्म के अनुसार, एक युग का समय 4,32,000 वर्ष होता है, जिसमें सत्य युग, त्रेतायुग, द्वापर युग और कलियुग की समयावधि का क्रम इस प्रकार होता है:

  • सत्य युग: 1,728,000 वर्ष
  • त्रेतायुग: 1,296,000 वर्ष
  • द्वापर युग: 864,000 वर्ष
  • कलियुग: 432,000 वर्ष

द्वापर युग का समय 864,000 वर्षों का होता है, लेकिन इस युग के बारे में कहा जाता है कि इसमें अच्छे और बुरे दोनों पहलुओं का संतुलन होता है। इसे अंधकार और प्रकाश का मिश्रण कहा जा सकता है। इस युग में लोग अपने कर्मों के आधार पर सुख और दुख का अनुभव करते हैं, लेकिन सत्य युग की अपेक्षा इसमें पुण्य और पाप का अनुपात थोड़ा बदल जाता है।

द्वापर युग की उत्पत्ति
द्वापर युग की उत्पत्ति की कथा विशेष रूप से महाभारत के आसपास जुड़ी हुई है। महाभारत एक महाकाव्य है, जिसमें भगवान श्री कृष्ण के अवतार, पांडवों और कौरवों के संघर्ष, और धर्म और अधर्म के बीच संघर्ष को प्रमुख रूप से दर्शाया गया है। इस युग में धर्म की रक्षा के लिए भगवान श्री कृष्ण का अवतार हुआ था, और उन्होंने पांडवों की सहायता की थी। इस युग में प्रमुख घटनाएँ इस प्रकार हैं:

  1. भगवान श्री कृष्ण का अवतार
    द्वापर युग की शुरुआत भगवान श्री कृष्ण के अवतार से मानी जाती है। भगवान विष्णु ने इस युग में मथुरा में अवतार लिया और उन्होंने पापियों का नाश किया। उनका जन्म मथुरा के राजा कंस के अत्याचारों के विरोध में हुआ था। भगवान श्री कृष्ण का उद्देश्य था धरती पर धर्म की पुनर्स्थापना करना और अधर्म के कृत्यों का नाश करना।
  2. पांडवों और कौरवों का युद्ध (महाभारत)
    द्वापर युग के सबसे महत्वपूर्ण घटनाक्रमों में से एक महाभारत का युद्ध था। यह युद्ध पांडवों और कौरवों के बीच हुआ था, जिसमें भगवान श्री कृष्ण ने पांडवों की मदद की और उन्हें मार्गदर्शन दिया। इस युद्ध ने धर्म और अधर्म के बीच की सीमा को स्पष्ट किया और यह दिखाया कि भगवान के आशीर्वाद से कोई भी असंभव कार्य संभव हो सकता है।
  3. धर्म की रक्षा और पाप का नाश
    द्वापर युग में धर्म की स्थिति अत्यधिक कमजोर हो गई थी, और अधर्म तेजी से फैल रहा था। भगवान श्री कृष्ण ने इस युग में धर्म की रक्षा के लिए कई कार्य किए। उन्होंने महाभारत के युद्ध के बाद युद्घ के महानकर्मों से धर्म की पुनः स्थापना की। इसके अतिरिक्त, उन्होंने श्रीमद्भगवद गीता का उपदेश देकर जीवन के उच्चतम आदर्शों को स्थापित किया।
  4. सत्य और असत्य का मिश्रण
    द्वापर युग में सत्य और असत्य का मिश्रण था, और समाज में दोनों ही तत्व देखने को मिलते थे। इस युग में लोग सत्य की ओर तो बढ़े, लेकिन अधर्म भी प्रबल था। इस युग में लोग धार्मिक कर्मों और पूजा अर्चना में रुचि रखते थे, लेकिन कई लोग सांसारिक सुखों के पीछे भागते थे, जिससे समाज में असंतुलन की स्थिति उत्पन्न होती थी।
  5. वेदों और शास्त्रों का प्रचार
    द्वापर युग में वेदों और शास्त्रों का महत्व बढ़ा। हालांकि सत्य युग में वेदों का प्रचार-प्रसार सरल था, द्वापर युग में धार्मिक शिक्षा और विद्या का एक नया स्वरूप सामने आया। लोग विभिन्न वेदों, उपनिषदों और अन्य धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन करते थे, और उनका अनुसरण करने की कोशिश करते थे।

द्वापर युग की विशेषताएँ

  1. साक्षात्कार और दैवीय कृपा
    द्वापर युग में भगवान के साथ लोगों का सीधा साक्षात्कार संभव था। श्री कृष्ण का अवतार लोगों के बीच था, और उन्होंने पांडवों और अन्य भक्तों को अपनी कृपा से लाभ पहुँचाया। इस युग में कई महान ऋषि-मुनियों और संतों ने भगवान का दर्शन किया और उनसे दिव्य उपदेश प्राप्त किए।
  2. धर्म और अधर्म का संघर्ष
    द्वापर युग में धर्म और अधर्म का संघर्ष काफी बढ़ चुका था। पांडवों और कौरवों के युद्ध के रूप में यह संघर्ष स्पष्ट रूप से सामने आया। यह युद्ध केवल भूमि पर नहीं, बल्कि मानसिक और आध्यात्मिक रूप से भी था। भगवान श्री कृष्ण ने गीता का उपदेश देकर धर्म की शक्ति को उजागर किया और पांडवों को जीत दिलाई।
  3. समाज का विकास और पतन
    द्वापर युग में समाज की स्थिति मिश्रित थी। एक ओर धर्म और संस्कृति का प्रसार हो रहा था, वहीं दूसरी ओर अधर्म और पाप बढ़ते जा रहे थे। लोगों की नैतिकता और धार्मिकता में गिरावट आने लगी थी, जिसके कारण समाज में तनाव और अशांति फैलने लगी।
  4. लक्ष्य की प्राप्ति में संघर्ष
    इस युग में कई महान योद्धा और राजा थे, जो अपने-अपने उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए संघर्ष करते थे। महाभारत का युद्ध इसका सबसे बड़ा उदाहरण है, जहाँ पांडवों और कौरवों ने अपने-अपने उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए अपार संघर्ष किया।

द्वापर युग में भगवान श्री कृष्ण का जन्म

हिंदू धर्म में समय के चार युगों का वर्णन मिलता है – सत्य युग, त्रेतायुग, द्वापर युग और कलियुग। इन युगों में से द्वापर युग वह युग था, जिसमें भगवान श्री कृष्ण का अवतार हुआ था। भगवान श्री कृष्ण का जन्म द्वापर युग में हुआ था और उनका जीवन इस युग के सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक माना जाता है।

द्वापर युग का महत्व

द्वापर युग का वर्णन महाभारत, भागवतमाहात्म्य और कई अन्य पुराणों में मिलता है। इस युग में धर्म और अधर्म के बीच संघर्ष की स्थिति बन गई थी, और भगवान श्री कृष्ण ने अधर्म को समाप्त करने के लिए अवतार लिया। द्वापर युग में कुल चार प्रमुख अवतार हुए थे – श्री कृष्ण, बलराम, कर्ण और महर्षि व्यास। http://www.alexa.com/siteinfo/sanatanikatha.com :

भगवान श्री कृष्ण का जन्म

भगवान श्री कृष्ण का जन्म द्वापर युग के अंतर्गत ही हुआ था। उनके जन्म का समय पृथ्वी पर अत्यधिक पाप और अत्याचार फैल चुका था। दुष्टों और असुरों का वर्चस्व था, और धर्म की स्थिति नष्ट हो चुकी थी। भगवान विष्णु ने पृथ्वी पर धर्म की पुनर्स्थापना करने के लिए श्री कृष्ण का अवतार लिया।

भगवान श्री कृष्ण का जन्म कंस के शासनकाल में हुआ था। कंस मथुरा का अत्याचारी राजा था। उसकी बहन देवकी से भगवान कृष्ण का जन्म हुआ था। देवकी के साथ ही देवकी के पति वसुदेव भी थे। कंस को एक भविष्यवाणी मिली थी कि देवकी का आठवां पुत्र उसे मार डालेगा। इस डर से कंस ने देवकी और वसुदेव को जेल में डाल दिया। लेकिन भगवान श्री कृष्ण ने अपनी अलौकिक शक्तियों से जेल में ही जन्म लिया। जन्म के बाद वसुदेव जी ने उन्हें गोवर्धन पर्वत के पास स्थित नंद बाबा के घर पहुंचाया, जहां श्री कृष्ण का पालन पोषण हुआ।

भगवान कृष्ण के बाल रूप की लीलाएं

भगवान श्री कृष्ण का बचपन बहुत ही सुंदर और अद्भुत था। वे जब माखन चोरी करते थे तो गांव वाले उन्हें लेकर परेशान होते थे। वे अपनी नटखट लीलाओं और चमत्कारी कार्यों से सभी को आश्चर्यचकित कर देते थे। बचपन में उन्होंने कई राक्षसों का वध किया जैसे कि पूतना, बकासुर, अघासुर आदि। हर एक राक्षस से लड़ते हुए श्री कृष्ण ने न केवल अपनी शक्तियों का परिचय दिया, बल्कि यह भी दिखाया कि धर्म की जीत अधर्म की हार सुनिश्चित करती है।

कृष्ण और गोपियाँ

भगवान श्री कृष्ण और गोपियों की प्रेमकथाएं भी बहुत प्रसिद्ध हैं। रासलीला का वर्णन वेद, उपनिषद और भागवत पुराण में मिलता है। कृष्ण ने अपनी संपूर्ण लीलाओं से यह सिद्ध किया कि प्रेम और भक्ति ही सच्ची साधना का रूप हैं। गोपियाँ श्री कृष्ण की भक्ति में इस कदर रंगी हुई थीं कि उन्होंने अपनी सारी सांसारिक जिम्मेदारियों को तज दिया था। भगवान कृष्ण ने गोपियों के साथ रासलीला की, जिससे यह सिद्ध हुआ कि सच्चा प्रेम आत्मा का परमात्मा से मिलन होता है।

महाभारत और भगवान श्री कृष्ण

भगवान श्री कृष्ण का सबसे महत्वपूर्ण कार्य महाभारत युद्ध के दौरान हुआ। महाभारत में उन्होंने पांडवों को जीत दिलाने के लिए अपनी कूटनीति का इस्तेमाल किया। उन्होंने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया, जिसमें जीवन, धर्म, कर्म, भक्ति और योग के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की। श्री कृष्ण का यह उपदेश आज भी हर व्यक्ति के जीवन में मार्गदर्शन प्रदान करता है। महाभारत के युद्ध में भगवान श्री कृष्ण ने पांडवों का साथ दिया और कौरवों को हराया। उन्होंने धर्म की स्थापना की और अधर्म को परास्त किया।

भगवान श्री कृष्ण के जीवन के प्रमुख प्रसंग

भगवान श्री कृष्ण के जीवन में कई महत्वपूर्ण घटनाएं घटित हुईं जो आज भी हमारे जीवन के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं। इनमें से कुछ प्रमुख घटनाओं में से एक है, जब भगवान श्री कृष्ण ने अपनी विश्वरूप दर्शन लीला अर्जुन को दिखाई। अर्जुन को यह समझाने के लिए कि भगवान श्री कृष्ण स्वयं ईश्वर के रूप में पूरे ब्रह्मांड में समाहित हैं, उन्होंने अपनी दिव्य रूप को अर्जुन के सामने प्रकट किया।

इसके अलावा, भगवान श्री कृष्ण ने अपने जीवन में कई बार भक्तों की रक्षा की और उन्हें धर्म के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया। उनकी जीवन यात्रा ने यह सिद्ध कर दिया कि भगवान अपने भक्तों के हर संकट में उनके साथ रहते हैं।

श्री कृष्ण का उत्तरकाल और उनकी शिक्षाएं

भगवान श्री कृष्ण का जीवन न केवल कर्मयोग और भक्ति का आदर्श प्रस्तुत करता है, बल्कि यह जीवन के हर पहलू को समझने का एक मार्गदर्शन भी है। उनके द्वारा दिए गए उपदेशों में मुख्य रूप से कर्म, भक्ति, योग, और धर्म की बातें हैं। उन्होंने यह सिखाया कि किसी भी परिस्थिति में हमें अपने धर्म का पालन करना चाहिए और कभी भी अधर्म का साथ नहीं देना चाहिए। भगवान श्री कृष्ण के उपदेशों में कर्म योग का महत्व बहुत अधिक है। उन्होंने यह बताया कि हमें अपने कर्मों का फल नहीं सोचना चाहिए, बल्कि हमें बस सही कर्म करते रहना चाहिए।

भगवान श्री कृष्ण का जन्म द्वापर युग में हुआ था और उन्होंने धर्म की रक्षा और अधर्म का नाश करने के लिए पृथ्वी पर अवतार लिया। उनका जीवन और उनकी लीलाएं आज भी मानवता को धर्म, सत्य और प्रेम का मार्ग दिखाती हैं। श्री कृष्ण के उपदेश, उनके कार्य और उनके द्वारा किए गए चमत्कारी कार्य न केवल उस समय के लिए महत्वपूर्ण थे, बल्कि आज भी हमारे जीवन के लिए प्रेरणा देने वाले हैं। उनका जीवन इस बात का प्रमाण है कि भगवान सच्चे भक्तों के साथ हमेशा होते हैं और जो अपने कर्मों में सत्य और धर्म का पालन करता है, उसे सच्ची सफलता मिलती है।

निष्कर्ष
द्वापर युग हिंदू धर्म के चार युगों में से एक महत्वपूर्ण युग है, जिसमें भगवान श्री कृष्ण का अवतार हुआ था और उन्होंने धर्म की पुनर्स्थापना के लिए महाभारत का युद्ध लड़ा। इस युग में समाज में धर्म और अधर्म के बीच संघर्ष बढ़ गया था, और भगवान श्री कृष्ण ने गीता का उपदेश देकर जीवन के उद्देश्य को स्पष्ट किया। द्वापर युग में सत्य और असत्य का मिश्रण था, और यह युग लोगों के लिए संघर्ष और आत्मज्ञान का समय था।

आज भी द्वापर युग की कथाएँ और घटनाएँ हमें धर्म, नैतिकता और जीवन के उद्देश्य को समझने के लिए प्रेरित करती हैं।

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